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Beatiful sayari

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झूठ कहते हैं लोग की दिल से निकली आवाज़ दिल तक जाती है मगर हमने तो अकसर ऐसी आवाजों को राहों में दम तोड़ते देखा है ।

हवा

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हो कुछ ऐसा कि हवा बन जाऊं। हर कोने में पहुंच कर बिखर जाऊं, हर मंदिर-मस्जिद जाकर शीश नवाऊँ। घुल कर पानी संग हर जीव की सांस बन जाऊं। इस सृष्टि के हर प्राणी के रक्त में जात मिटाऊं। रोके जो धर्म की बेड़ियां मेरे पांवों को, तोड़ कर इनको फिर तूफान बन जाऊं। आडम्बरों का चोला पहने जहां को तबाह कर जाऊं, एक नये दिनकर संग खुशनुमा संसार बना जाऊं।

एक ऐसी दुनिया चाहिए .....

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अक्सर हमसे पूछा जाये, कैसी दुनिया हम चाहे। एक ऐसी दुनिया चाहिए... जहाँ, ना लोगों का शोर हो, ना मौन का गौर हो। हरियाली की साज हो, झरनों की आवाज हो। हवाओं की लहर हो, पंछियों संग सहर हो। सौन्दर्य का भरमार हो, ना सादगी से इनकार हो। ना आधुनिकता सी भागमभाग हो, ना आदिकाल सा वैराग हो। मन में भक्ति अपार हो, शान्ति का भण्डार हो। ना प्रेम की चाह हो, ना नफरत की राह हो। ना किसी तरह का डर हो, हर ओर अपना सा घर हो। ना मरने का खौफ़ हो, ना जीने का शौक़ हो। ना दिन का सवेरा हो, ना रात का अँधेरा हो। ना साथ का फिक्र हो, ना तन्हा का जिक्र हो। ना इंसानों से मिलने का बहाना हो, ना किसी को अपना बनाना हो। ना रिश्तों की कड़वाहट हो, बस यूँ ही मुस्कराहट हो। ना पुण्य का ढिण्ढोरा हो, ना पाप का कटोरा हो। सुकून का सवेरा हो, और प्रभु का बसेरा हो। है..कोई ऐसा जहां, तो..जाना है हमें वहां।

बसीरत(दूरदर्शिता)

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जिंदगी ...थक गई हूँ मैं।

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अब बस भी कर जिंदगी , थम जा..... थक गई हूँ अब... तुझ संग चलते-चलते, थक गई हूँ अब... इन नकली चेहरों के पीछे छिपते -छिपते, थक गई हूँ अब... इन नाम मात्र के बचे रिश्तों को जोड़ते-जोड़ते, थक गई हूँ अब... दुनिया के बनाए इन खोखले नियमों को अपनाते-अपनाते, थक गई हूँ अब... खुद से ही यूँ झुठ बोलते-बोलते, थक गई हूँ अब... दिखावे के लिए ही मुस्काते -मुस्काते, थक गई हूँ अब... बेवजह की इन ख्वाहिशों का बोझ उठाते-उठाते, थक गई हूँ अब... इंसानों के मुताबिक़ ही इंसान बनते-बनते, थक गई हूँ अब... बेमतलब का ये जीवन जीते -जीते, अब बस भी कर जिंदगी, थम जा... थक गई हूँ मैं।

उल्फ़त

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हरीफ़ हजारों मिलेंगे इस हयात में, अहबाब मिलेंगे किन्तु अफ्सूँ में। उल्फ़त में शामिल कोई खास होगा, मगर महरूम में दाखिल सारा दयार होगा।

कला

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कला;-किसी के लिए अथाह गहराई, किसी ने सिर्फ दीवार सजाई। कलाकार की बनायी एक शाहकार, इल्म समेटें थी अपार। उस कृति के पीछे  थी रहनुमा एक, हम ने घड़ डाली कथाएँ अनेक। माना उस कलाकार की सोच से ना वाकिफ हो पाए, किन्तु अपनी सोच के दायरे को तो पहचान पाए। हर बार बदली तो नहीं थी वो कलाकृति, मगर मति पर निर्भर थी उसकी खूबसूरती।